बचपन मे 1 रु. की पतंग के पीछे २
की. मी. तक भागते थे...
न जाने कीतने चोटे
वो पतंग भी आसमान से हंसती हुए
हमे बहोत
दौड़ाती थी...
शायद वही जिंदगी की दौड़
थी...
आज पता चलता है, दरअसल वो पतंग
नहीं थी;
एक चेलेंज थी...
खुशीओं को हांसिल करने के लिए दौड़ना पड़ता है...
वो दुकानो पे नहीं मिलती
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