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Thursday, April 26, 2018

परिवार



परिवार अब कहाँ, परिवार तो कब के मर गए।

आज जो है, वह उसका केवल 

टुकड़ा भर रह गए।




पहले होता था दादा का,

बेटों पोतों सहित,भरा पूरा परिवार,

एक ही छत के नीचे।

एक ही चूल्हे पर,

पलता था उनके मध्य,

अगाध स्नेह और प्यार।




*अब तो रिश्तों के आईने,*

*तड़क कर हो गए हैं कच्चे,*

*केवल मैं और मेरे बच्चे।*

*माँ बाप भी नहीं रहे*

*परिवार का हिस्सा,*

*तो समझिये खत्म ही हो गया किस्सा।*




होगा भी क्यों नहीं,

माँ बाप भी आर्थिक चकाचोंध में,

बेटों को घर से दूर

ठूंस देते हैं किसी होस्टल में,

पढ़ने के बहाने।

वंचित कर देते हैं प्रेम से

जाने अनजाने।




*आज की शिक्षा*

*हुनर तो सिखाती है।*

*पर संस्कार कहाँ दे पाती है।*




पढ़ लिख कर बेटा डॉलर की 

चकाचोंध में,

आस्ट्रेलिया, यूरोप या अमेरिका 

बस जाता है।

बाप को कंधा देने भी कहाँ पहुंच पाता है।




बाकी बस जाते हैं बंगलोर,

हैदराबाद, मुम्बई,

नोएडा या गुड़गांव में।

फिर लौट कर नहीं आते

माँ बाप की छांव में।




बीते वर्ष का है किस्सा,

ऐसा ही एक बेटा, पुस्तैनी घर बेचकर,

माँ के विश्वास को तोड़ गया।

उसको यतीमों की तरह,

दिल्ली के एयर पोर्ट पर छोड़ गया।




अभी कुछ समय एक नालायक ने

माँ से बात नहीं की, पूरे एक साल।

आया तो देखा माँ का आठ माह पुराना कंकाल।

माँ से मिलने का तो केवल एक बहाना था।

असली मकसद फ्लैट बेचकर खाना था।




अर्थ की भागमभाग में 

मीलों पीछे छूट गए हैं

रिश्ते नातेदार।

टूट रहे हैं घर परिवार

सूख रहा है प्रेम और प्यार।











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